अलख
छोटे छोटे नर्म हाथ
पत्थरों की सतह पर
रगड़ते रगड़ते ,
मजबूत इमारतों की
नीव बुन रहे हैं .
उनके धुल से सने चेहरे
इमारतों के बीच ,
ढूंढते हैं
अपने मासूमियत को ,
जिन नर्म हाथों में
हमने कलम सजाने की बात की थी,
आज खोजते हैं ,
अपने रहनुमाओं को ,
और इन सब के बीच.........“मैं “
मैं चुपचाप इन पत्थरों के
बीच से गुजरकर ,
तैयार इमारतों में ,
“शिक्षा” की “अलख” जगाता हूँ ...........
ये , मैं क्या करता हूँ ............................... – नवीन कुमार
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